आचार्य मानदेवसूरी द्वारा महामारी रोकने हेतु लघु शांति की रचना की गयी थी जिसका विवरण इस प्रकार है।
नाडोल गाँव में शेठ धनेश्वर और धारिणी के यहां जन्मे बालक का नाम मांडव था। उन्होने आचार्य प्रधुषणसूरि के उपदेश से प्रभावित होकर संन्यासी बनने के लिए भौतिक संसार को त्याग दिया। मनदेवसूरी नाम के साथ उन्होनें ग्यारह अंगो का अध्यन किया तथा चडसूत्र मे उत्कृष्टता प्राप्त की। तब उनको आचार्य का दर्जा दिया गया। उन्होनें अपने पंच महाव्रतों का सख्ती से पालन किया। तथा अपने गुरुदेव की दुविधा को समझते हुए किसी भी ज्ञात व्यक्ति के घर से अपने लिए भिक्षा न लेने का जीवनभर का प्रण लिया।
इस व्रत के कारण आचार्य मानदेवसूरि की तपस्या को अधिक शक्ति प्राप्त हुई। उनके सख्त ब्रह्मचर्य और गहन ज्ञान को देखने के बाद, चार देवियां जया, विजया, अपराजिता और पद्म उनकी सेवा में बने रहे। इन चार देवियों के कारण आचार्य मानदेवसूरी की महिमा हर जगह फैल गयी थी।
500 जैन मंदिरों वाले तक्ष-शिला शहर में एक महामारी आई और बहुत से लोग मरने लगे। पूरा शहर शवों के ढेर से भरा था। दर्द और शोक की भयावह चीत्कार से हवा भर गई थी। इस समय श्रावकों ने समस्या के समाधान हेतु शासन देवी को आमंत्रित किया। माता ने नाडोल शहर में आचार्य मनदेवसूरी के पास जाने के लिए कहा। तथा बताया कि उनके पैरों को साफ करके प्राप्त पानी का छिड़काव करते हैं, तो महामारी तुरंत बंद हो जाएगी।
तक्ष-शिला नगरी के जैन संघ का अनुरोध पत्र देखने के पश्चात उन्होने आश्वासन दिया कि वो खुद वहां बैठकर जरूरतमंदो की मदद करेंगे। उसी समय उन्होनें मंत्रो-अक्षरों के साथ शांतीस्तवस्तोत्र की रचना की, जिसे लघु शांति के नाम से जाना जाता है। लघु शांति स्तव इस प्रकार हैः
शान्तिं शान्ति निशान्तं, शान्तं शान्ताऽशिवं नमस्कृत्य;
स्तोतुः शान्ति-निमित्तं, मन्त्रपदैः शान्तये स्तौमि ।।१।।
ओमिति निश्चित वचसे, नमो नमो भगवतेऽह्हते पूजाम्;
शान्तिजिनाय जयवते, यशस्विने स्वामिने दमिनाम् ।।२।।
सकलातिशेषकमहा-संपत्ति-समन्विताय शस्याय;
त्रैलोक्यपूजिताय च, नमो नमः शान्तिदेवाय ।।३।।
सर्वामर-सुसमूह-स्वामिक-संपूजिताय न जिताय;
भुवनजन-पालनोद्यत-तमाय सततं नमस्तस्मै ।।४।।
सर्वदुरितौध-नाशन-कराय सर्वाशिव-प्रशमनाय;
दुष्ट-ग्रह भूत-पिशाच, शाकिनीनां प्रमथनाय ।।५।।
यस्येति नाम-मन्त्र-प्रधान-वाक्योपयोग-कृत तोषा;
विजया कुरुते जन-हित-मिति च नुता नमत तं शांतिम् ।।६।।
भवतु नमस्ते भगवति ! विजये ! सुजये! परापरैरजिते !
अपराजिते ! जगत्यां, जयतीति जयावहे! भवति ।।७।।
सर्वस्यापि च संघस्य, भद्र-कल्याण-मंगल-प्रददे !
साधूनां च सदा शिव सुतुष्टि- पुष्टिप्रदे! जीयाः ।।८।।
भव्यानां कृत-सिद्धे ! निर्वृतिनिर्वाण-जननि ! सत्त्वानाम्;
अभय-प्रदान निरते! नमोऽस्तु स्वस्ति-प्रदे तुभ्यम् ।।९।।
भक्तानां जन्तूनां, शुभा-वहे! नित्यमुद्यते! देवि!
सम्यग्-दृष्टिनां धृति रति-मति-बुद्धि-प्रदानाय ।।१०।।
जिनशासननिरतानां, शांतिनतानां च जगति जनतानाम्;
श्रीसंपत्कीर्ति-यशो-वर्द्धनि ! जय देवि! विजयस्व ।।११।।
सलिलानल-विष-विषधर-दुष्टग्रह राज-रोग-रण-भयतः
राक्षस – रिपु – गण – मारि – चौरेति – श्वापदादिभ्यः ।।१२।।
अथ रक्ष रक्ष सुशिवं, कुरु कुरु शान्तिं च कुरु कुरु सदेति;
तुष्टिं कुरु कुरु पुष्टिं, कुरु कुरु स्वस्तिं च कुरु कुरु त्वम् ।।१३।।
भगवति ! गुणवति ! शिव-शान्ति
तुष्टि-पुष्टि स्वस्तीह कुरु कुरु जनानाम्;
ओमिति नमो नमो ह्राँ ह्रीँ हुँ ह्रः
यः क्षः ह्रीँ फट् फट् स्वाहा ।।१४।।
एवं यन्नामाक्षर-पुरस्सरं संस्तुता जया-देवी;
कुरुते शान्तिं नमतां, नमो नमः शांतये तस्मै ।।१५।।
इति पूर्व-सूरि-दर्शित, मन्त्रपद-विदर्भितः स्तवः शान्तेः
सलिलादि-भय-विनाशी, शान्त्यादि-करश्च भक्तिमताम् ।।१६।।
यश्चैनं पठति सदा, श्रृणोति भावयति वा यथायोगम्;
स हि शान्तिपदं यायात्, सूरिः श्रीमानदेवश्च ।।१७।।
उपसर्गाः क्षयं यान्ति, छिद्यन्ते विघ्न-वल्लयः
मनः प्रसन्नतामेति, पूज्यमाने जिनेश्वरे ।।१८।।
सर्व-मंगल-मांगल्यं, सर्व कल्याण-कारणम्
प्रधानं सर्व-धर्माणां, जैनं जयति शासनम् ।।१९।।
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