भक्तामर स्तोत्र - Bhaktamar Stotra - आचार्य मानतुंगसूरि द्वारा

भक्तामर स्तोत्र – Bhaktamar Stotra – आचार्य मानतुंगसूरि द्वारा

भक्तामर स्तोत्र का जैन धर्म में बडा ही महत्व है। भक्तामर स्तोत्र की रचना वाराणसी में ‘धनदेव’ श्रेष्ठि के यहाँ जन्मे आचार्य श्रीमानतुंग सूरि जी द्वारा किया गया। भक्तामर स्तोत्र जैन परंपराओं में सबसे लोकप्रिय संस्कृत प्रार्थना है। भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों का पाठन वसंततिलका छन्द में किया गया है।

छन्द शब्द मूल रूप से छन्दस् अथवा छन्दः है। इसके शाब्दिक अर्थ दो है – ‘आच्छादित कर देने वाला’ और ‘आनन्द देने वाला’ । लय और ताल से युक्त ध्वनि मनुष्य के हृदय पर अपना प्रभाव डाल कर उनको एक विषय में स्थिर कर देती है जहां मनुष्य उससे प्राप्त आनन्द में डूब जाता है।  यही कारण है कि लय और ताल वाली रचना छन्द कहलाती है। इसका दूसरा नाम वृत्त है। वृत्त का अर्थ है प्रभावशाली रचना। वृत्त भी छन्द को इसलिए कहते हैं, क्यों कि अर्थ जाने बिना भी सुनने वाला इसकी स्वर-लहरी से प्रभावित हो जाता है। यही कारण है कि सभी वेद छन्द-रचना में ही संसार में प्रकट हुए थे।

यह छन्द चौदह वर्णों वाला है। ‘तगण’, ‘भगण’, ‘जगण’, ‘जगण’ और दो गुरुओं के क्रम से इसका प्रत्येक चरण बनता है। 4 पंक्तियों के 56 वर्णों को मिलाकर हर छन्द बनता है।

आचार्य श्रीमानतुंग सूरि से नाराज होकर राजा भोज ने उन्हें कारागार में बंद करवा दिया तथा जंजीरो की बेड़ियो से शरीर को बांध दिया । इस कारागर में 48 दरवाजे थे जिन पर 48 मजबूत ताले लगवा दिये गये। तब आचार्य मानतुंग स्वामी ने आदीनाथ भगवान का स्मरण करते हुए भक्तामर स्तोत्र की रचना की तथा हर श्लोक की रचना पर ताला स्वयं टूटता चला गया तथा उनके शरीर पर बांधी गयी सभी जंजीरो की बेड़िया टूट कर गिर गयी। लेकिन श्वेताम्बर जैन समुदाय में 44 स्तोत्र का उल्लेख किया गया है। (इस विषय पर अनुसंधान जारी है)

आचार्य श्रीमानतुंग सूरि 7 वी शताब्दी में राजा भोज के काल में प्रसिद्ध हुए । मंत्र शक्ति में आस्था रखने वालो के लिए यह रचना दिव्य स्तोत्र है । इसका नियमित जाप एक माला के रूप में करने से मन में शांति का अनुभव होता है व सुख समृद्धि एवं वैभव की प्राप्ति होती है। जैन धर्म में ही नही अपितु अन्य धर्मों मे भी यह माना जाता है कि भक्तामर स्तोत्र में भक्ति भाव की इतनी सर्वोच्चता है कि यदि आपने सच्चे मन से इसका पाठ किया तो आपको साक्षात ईश्वर की अनुभति होती है।

भक्तामर स्तोत्र का जाप प्रतिदिन प्रातःकाल (सूर्योदय) के समय पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुख करके करना चाहिए। एक ही जगह पर जाप किया जाय तो उस जगह पर बैठने से अद्बभुत उर्जा मिलती है।

हर स्तोत्र की रचना अपने आप में अद्भुत है, जिनका जाप विभिन्न परिस्थितियों में किया जा सकता है। आप अगर कार्य करते समय भी भक्तामर स्तोत्र को सुनते है तो, वह लाभकारी होता है। विशेष जानकारी हेतु आप मुझसे सम्पर्क कर सकते हैं। प्रदीप कोचर – 9433056054 / 8820424365

श्लोक – 1 (सर्वोपद्रव विनाशक स्तोत्र)

भक्तामर – प्रणत – मौलि – मणि – प्रभाणा –
मुद्योतकं दलित – पाप – तमो – वितानम्।
सम्यक् -प्रणम्य जिन – पाद – युगं युगादा –
वालम्बनं भव – जले पततां जनानाम् ।।

Bhaktamar pranat mauli mani prabhana
Muddyotakam dalita pap tamo vitanam.
Samyak pranamya jin pad yugam yugada-
Valambanam bhava jale patatam jananam.

भक्ति युक्त निज शीश झुका, जब देव वन्दना करते हैं,
उनके मुकुट मणी रत्नों में, दिव्य तेज जो भरते है ।
मिथ्यातम कर दूर जीव को, भवदधि से सुपद गहले,
ऐसे श्री जिनराज चरण को, विधि सहित वन्दन पहले।।

आवश्यकताः  अगर आपका जीवन संकट की घड़ियों से गुजर रहा है तो उनका क्षय होगा। शक्ति तथा ज्ञान का उपार्जन होगा जिसके कारण आपको नकारात्मकता से छुटकारा मिलेगा।

श्लोक – 2 (सर्वाविघ्न विनाशक स्तोत्र)

य: संस्तुत: सकल – वाङ्गमय – तत्त्व – बोधा –
दुद्भूत – बुद्धि  पटुभि: सुरलोक – नाथै:।
स्तोत्रैर् – जगत् – त्रितय – चित्तहरै – रुदारै:,
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम्।।

Yah sanstutah sakala vaangmaya tatva bodhaa
Dudbhuta buddhi patubhih suraloka naathaih.
Stotrair jagattri taya chitta harairudaaraih
Stoshye kilahamapi tam prathamam jinendram.

तत्व ज्ञान से पूर्ण स्वर्गपति, इन्द्रों ने महिमा गाई,
भाव भरे स्त्रोत रचना कर, करी स्तुति मन चाई ।
आश्चर्य मैं तुच्छ बुद्धि हूं, फिर भी साहस ठाऊंगा,
उन्हीं श्री आदि जिनन्द की, मैं महिमा गाऊंगा ॥

श्लोक – 3 (शत्रुदृष्टि बन्धक स्तोत्र)

बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित – पाद – पीठ!
स्तोतुं समुद्यत – मतिर् – विगत – त्रपोऽहम्।
बालं विहाय जल – संस्थित – मिन्दु – बिम्ब –
मन्य: क इच्छति जन: सहसा ग्रहीतुम्।।

Buddhya vinaapi vibudharchita pada pitha
Stotum samudyata matirvigata trapoaham.
Balam vihaya jala sansthita mindu bimba
Manyah ka ichchhati janah sahasa grahitum.

देख चन्द्र की छाया जल में, बालक का मन जाता है,
ज्ञान नहीं होने के कारण उसे, पकड़ना चाहता है।
बुद्धिहीन हूं, निर्लज होकर, तब स्त्रोत की तैयारी,
करने को उद्यत हुआ मेरा, साहस अतिशय भारी ॥

श्लोक – 4 (जलजन्तु अभय प्रदायक स्तोत्र)

वक्तुं गुणान्  गुणसमुद्र ! शशाङ्क-कान्तान्,
कस्ते क्षम: सुरगुरु-प्रतिमोऽपि बुद्ध्या।
कल्पान्त – काल – पवनोद्धत – नक्र – चक्रं ,
को वा तरीतुमलमम्बु – निधिं भुजाभ्याम्।।

Vaktum gunan gunasamudra shashankakantan
Kaste kshamah suraguru pratimoapi buddhya.
Kalpanta kala pavanoddhata nakra chakram
Ko va taritumalamambu nidhim bhujabhyam.

प्रलय काल के प्रबल वेग में, सागर जब लहरें देता,
किसकी ताकत भुजा के बल से, पार तैर कर लेता ।
उसी भांति है गुण सागर, तेरी गुण महिमा गाने में,
मेरा क्या सामर्थ्य स्वय, वृहस्पति अपूर्ण बनाने में ।।

श्लोक – 5 (लोचनकष्ट मोचक स्तोत्र)

सोऽहं तथापि तव भक्ति – वशान्मुनीश!
कर्तुं स्तवं विगत – शक्ति – रपि प्रवृत्त:।
प्रीत्याऽऽत्म – वीर्य – मविचार्य मृगो मृगेन्द्रं
नाभ्येति किं निज-शिशो: परिपालनार्थम्

Soaham tathapi tava bhakti vashanmunisha
Kartum stavam vigata shaktirapi pravrittah.
Prityatma virya mavicharya mrigo mrigendram
Nabhyeti kim nijashishoh paripalanartham.

यद्यपि मुझमें शक्ति नहीं है, तेरी महिमा गाने की,
पर भक्ति के वश में हूं, इच्छा है स्त्रोत बनाने की ।
सिंह के मुख में देख लाल, शक्ति का ध्यान नहीं लाती है,
प्रीति के वश में हो हरिणी, सिंह से लड़ने जाती है ॥

श्लोक – 6 (वियुक्तप्सक्ति संयोजक स्तोत्र)

अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास – धाम,
त्वद्भक्तिरेव मुखरी – कुरुते बलान्माम्।
यत्कोकिल: किल मधौ मधुरं विरौति,
तच्चारु – चूत – कलिका – निकरैक – हेतु।।

Alpashrutam shrutavatam parihasa dham
Tvadbhaktireva mukhari kurute balanmam.
Yatkokilah kila madhau madhuram virauti
Tachcharu choot kalika nikaraika-hetuh.

कोयल क्यों ना हरदम बोले, बसन्त ही जब आती हैं,
आमों की मांजरि ही बस, उसको मीठा बुलवाती है ।
उसी तरह अल्पज्ञ हूं पर, तब भक्ति मुझे विवश करती,
शक्ति नहीं बस भक्ति ही, इस रचना का कारण रखती ॥

श्लोक – 7 (भुजंगविष उपशमक स्तोत्र)

त्वत्संस्तवेन भव – सन्तति – सन्निबद्धं,
पापं क्षणात् क्षयमुपैति शरीरभाजाम् !
आक्रान्त – लोकमलि – नीलमशेषमाशु,
सूर्यांशु – भिन्नमिव शार्वरमन्ध – कारम्।।

Tvatsanstavena bhava santati sannibaddham
Papam kshanat kshayamupaiti sharirabhajam.
Akranta lokamali nilamasheshamashu
Suryanshu bhinnamiva sharvaramandha karam

सम्पूर्ण विश्व में घोर तिमिर, छाया रहता है अति भारी.
पल-पल में हो जाय नष्ट जब, आती रवि किरणें प्यारी ।
उसी तरह तेरी स्तुति, करता है जो देह – धारी,
क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं, भावभाव के पातक भारी ॥

श्लोक – 8 (सर्वारिष्ट संहारक स्तोत्र)

मत्वेति नाथ ! तव संस्तवनं मयेद –
मारभ्यते तनु – धियापि तव प्रभावात् ।
चेतो हरिष्यति सतां नलिनी – दलेषु,
मुक्ता – फल – द्युतिमुपैति ननूद – बिन्दु:।।

Matveti nath ! tava sanstavanam mayeda
Maarabhyate tanu dhiyapi tava prabhavat.
Cheto harishyati satam nalini daleshu
Mukta phala dyutimupaiti nanuda binduh.

साधारण जल का बिन्दु, कमलिनी के पत्तों पर होता,
मोती नही पर उस पत्ते पर, वह मोती सा ही सोहता ।
उसी तरह मुझ मन्द मति से, तुच्छ स्त्रोत बन पावेगा,
पर तेरे प्रभाव से भगवान, सज्जन के मन भावेगा ।।

श्लोक – 9 (दस्युतस्कर चौरभय विवर्जक स्तोत्र)

आस्तां तव स्तवनमस्त – समस्त – दोषं,
त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति।
दूरे सहस्र – किरण: कुरुते प्रभैव,
पद्माकरेषु जल-जानि विकास – भाञ्जि।।

Astam tava stavanamasta samasta dosham
Tvatsankathapi jagatam duritani hanti.
Dure sahasra kiranah kurute prabhaiva
Padmakareshu jalajani vikasha bhanji.

सूर्य उदय में प्रथम प्रभा को, देख कमल खिल उठता है,
सूर्य देखकर कमल खिले, इसमें क्या आश्चर्य लगता है ।
तेरी केवल चर्चा होने से, पाप नष्ट हो जाये सभी,
इस स्त्रोत से होवेंगे ही, इसमें नहीं सन्देह कभी ॥

श्लोक – 10 (उन्मत श्वान विष विनाशक स्तोत्र)

नात्यद्भुतं भुवन – भूषण ! भूतनाथ !
भूतैर्गुणैर्भुवि भवन्तमभिष्टुवन्त:।
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा ?
भूत्याश्रितं य इह नात्म – समं करोति।।

Natyadbhutam bhuvana bhushana ! bhutanatha !
Bhutairgunairbhuvi bhavantamabhishtuvantah.
Tulya bhavanti bhavato nanu tena kim va
Bhutyashritam ya iha natma samam karoti.

उदार हृदय स्वामी का सेवक, समय पड़ें पाकर धनवान,
अपने स्वामी के समान ही, हो जाता भगवान धनवान
उसी तरह हे जग भूषण, जो तेरी महिमा गाते हैं,
तेरे समान ही उच्च पद पा, विश्व वन्द्य हो जाते हैं ॥

श्लोक – 11 (इष्ट व्यक्ति आमन्त्रक स्तोत्र)

दृष्ट्वा भवन्त – मनिमेष – विलोकनीयं,
नान्यत्र  तोष – मुपयाति जनस्य चक्षु:।
पीत्वा पय: शशिकर – द्युति – दुग्ध – सिन्धो:,
क्षारं जलं जल निधेरसितुं क इच्छेत् ?।।

Drishtava bhavanta manimesha vilokaniyam
Nanyatra tosha mupayati janasya chakshuh.
Pitva payah shashikara dyuti dugdha sindhoh
Ksharam jalam jal nidherasitum ka ichchhet ?.

एक बार जो क्षीर सागर का, मीठा पानी पी लेता,
फिर खारा पानी पीने को, कैसे इच्छा रख सकता ।
उसी तरह जो तेरे दर्शन, कर लेता है सुख दाई,
अन्य देवों के दर्शन को वो, कभी न मन देगा भाई ॥

श्लोक – 12 (मदोन्मत हस्तिमद नाशक स्तोत्र)

यै: शान्त – राग – रुचिभि: परमाणुभिस्त्वं,
निर्मापितस्त्रि – भुवनैक – ललाम – भूत !
तावन्त एव खलु तेऽप्यणव: पृथिव्यां,
यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति।।

Yaih shanta raga ruchibhih paramanubhistavam
Nirmapitastri bhuvanaika lalama bhuta.
Tavanta eva khalu teapyanavah prithivyam
yatte samanamaparam na hi rupamasti.

जिन पुद्गल परमाणु से तब, शरीर बना है गुण धामी,
वे परमाणु उतने ही थे, सारे विश्व में हे स्वामी ।
यदि अधिक परमाणू होते, अन्य रूप कोई बनता,
स्पष्ट है इस धरती पर, नहीं, रूपवान तुझसा जचता ॥

श्लोक – 13 (विवध भय निवारक स्तोत्र)

वक्त्रं क्वते सुर – नरोरग – नेत्र – हारि,
नि:शेष – निर्जित – जगत्त्रितयोपमानम् ।
बिम्बं कलंक – मलिनं क्व निशा – करस्य ?,
यद्वासरे भवति पाण्डु – पलाश – कल्पम्।।

Vaktram kvate sura naroraga netra hari
Nihshesha nirjita jagattritayopamanam.
Bimbam kalanka malinam kva nisha karasya
Yadvasare bhavati pandu palasha kalpam.

निष्कलंक और द्रव्य छवि है, तेरे मुख सुख कन्दा की,
उपमा कैसे दे सकता हूं, उसे कलंकी चन्दा की ।
दिन में ढाक के पत्ते सा वो, प्रभावहीन हो जता है ,
पर तेरा मुख तो है उज्जवल, सदा एक सा पाता है ।।

श्लोक – 14 (वात व्याधि विघातक स्तोत्र)

सम्पूर्ण – मण्डल – शशाङ्क – कला – कलाप –
शुभ्रा गुणास्त्रि भुवनं तव लंघयन्ति।
ये संश्रितास्त्रि – जगदीश्वर ! नाथमेकं,
कस्तान्निवारयति संचरतो यथेष्टम्।।

Sampurna mandala shashanka kala kalapa
Shubhra gunastri bhuvanam tava langhayanti.
Ye sanshritastri jagadishvara! nathamekam
Kastannivarayati sancharato yatheshtam.

चन्द्र किरण सम निर्मल भगवन गुण समूह तेरा भारी,
तीन भुवन का करे उल्लंघन, इसमें क्या आश्चर्य कारी ।
तीन जगत के नाथ आपका, जो भी आश्रय चित्त धरता,
भला उसे स्वतन्त्र गमन में, कौन अड़चन दे सकता ॥

श्लोक – 15 (राज वैभव प्रदायक स्तोत्र)

चित्रं  किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्ग – नाभिर्-
नीतं मनागपि मनो न विकार – मार्गम् ? ।
कल्पान्त – काल – मरुता चलिताचलेन,
किं मन्दराद्रि – शिखरं चलितं कदाचित्।।

Chitram kimatra yadi te tridashanga nabhir
Nitam managapi mano na vikara margam ?.
Kalpanta kala maruta chalitachalena
Kim mandaradri shikhiram chalitam kadachit.

प्रलय काल की हवा से भगवान, सारे पर्वत हिल जाते,
पर सुमेरू पर्वत को, किंन्चित भी नहीं डिगा पाते।
तेरे सन्मुख देवांगना ने, भोग प्रदर्शन दिखलाये,
पर वे तेरे विरक्त भाव को, किंचित भी नहीं डिगा पाये ॥

श्लोक – 16 (प्रतिद्वंदी अवरोधक स्तोत्र)

निर्धूम – वर्तिरपवर्जित – तैल – पूर:,
कृत्सनं जगत्त्रयमिदं प्रकटी – करोषि।
गम्यो न जातु मरुतां चलिता – चलानां,
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ ! जगत्प्रकाश:।।

Nirdhuma vartirapavarjita taila purah
Kritsnam jagattrayamidam prakati karoshi.
Gamyo na jatu marutam chalita chalanam
Dipoaparastvamasi natha ! jagat prakashah.

संसारी दीपक में भगवान, तो धुआं बत्ती होती,
जरा हवा के झोंके में ही, बुझ जाती उसकी ज्योति ।
वो केवल घर का उजियारा, तू त्रिभूवन का उद्योत,
डिगा सके नहीं प्रलय हवा है,सदा अखंडित अविचलज्योति ॥

श्लोक – 17 (उदा पीड़ा नाशक स्तोत्र)

नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्य:,
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति।
नाम्भोधरो – दर – निरुद्ध – महाप्रभाव:,
सूर्यातिशायि – महिमासि मुनीन्द्र लोके।।

Nastam kadachidupayasi na rahugamyah
Spashtikaroshi sahasa yugapajjaganti.
Nambhodharo dara niruddha mahaprabhavah
Suryatishayi mahimasi munindra loke.

सूर्य अस्त होता संघ्या को, तू तो सदा प्रकाशी है,
तीन जगत का तू उजियाला, वो एक जम्बू वासी है।
राहु ग्रहण लगता सूर्य को, तू निष्कलंक सूर्य का नूर,
उसके तेज को मेघ ढ़ंके, पर तुने कर्म किये चकनाचूर ।।

श्लोक – 18 (शत्रु सैन्य स्तंभक स्तोत्र)

नित्योदयं दलितमोह – महान्धकारं,
गम्यं न राहु – वदनस्य न वारिदानाम्।
विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्प – कान्ति,
विद्योतयज्जगदपूर्व – शशांक – बिम्बम्।।

Nityodayam dalitamoha mahandhakaram
Gamyam na rahu vadanasya na varidanam.
Vibhrajate tava mukhabjamanalpa kanti
Vidyotayajjagadapurva shashanka bimbam.

कैसे चन्द्र की दू उपमा, वह तो रात्रि में ही रहता,
साधारण अन्धकार हरे, और राहु ग्रसे बादल ढकता ।
पर तेरा मुख सदा उदय, अज्ञान मोह तम को हरता,
तीन जगत में सदा प्रकाशी, अन्नत क्रान्ति का तू धरता ।।

श्लोक – 19 (तंत्र प्रभाव उच्चाटक स्तोत्र)

किं शर्वरीषु शशिनाऽह्नि विवस्वता वा,
युष्मन्मुखेन्दु – दलितेषु तमस्सु नाथ ?।
निष्पन्न – शालि – वन – शालिनी जीव – लोके,
कार्यंं कियज्जधरैर्जल – भार-नम्रै:?।।

Kim sharvarishu shashinanhi vivasvata va
Yushmanmukhendu daliteshu tamassu natha?.
Nishpanna shali vana shalini jiva loke
Karyam kiyajjaladharairjala bhara namraih?.

पकी हुई अन्न राशि पर, गर जो मेहा आकर बरसे,
सिवाय कीचड़ फैलाने के, अन्य लाभ क्या हो उससे ।
जहा तेरा मुख रूपी चन्द्र, अज्ञान तिमिर को हरता है,
चन्द्र सूर्य का शीत उष्ण वहा व्यर्थ आतपसा लगता है ॥

श्लोक – 20 (उन्मत श्वान विष विनाशक स्तोत्र)

ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं,
नैवं तथा हरि – हरादिषु नायकेषु।
तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्त्वं,
नैवं तु काच – शकले किरणा – कुलेऽपि।।

Gyanam yatha tvayi vibhati kritavakasham
Naivam tatha Hari Haradishu nayakeshu.
Tejah sfuranmanishu yati yatha mahattvam
Naivam tu kacha shakale kirana kuleapi.

जो प्रकाश शोभा पाता है, प्रभु मणि को पाकर के,
वह क्या शोभा को पावेगा, कांच-टूक में जाकर के ।
स्वयं प्रकाशी आप सभी को, देते हो जो ज्ञान प्रकाश,
अन्य हरिहर में पाने की, कर सकता हूं कैसे आश ॥

श्लोक – 21 (सर्वाधीन कारक स्तोत्र)

मन्ये वरं हरि- हरादय एव दृष्टा,
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति।
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्य:,
कश्चिन्मनो हरति नाथ ! भवान्तरेऽपि।।

Manye varam Hari Haradaya eva drishta
Drishteshu yeshu hridayam tvayi toshameti.
Kim vikshitena bhavata bhuvi yena nanyah
Kashchinmano harati natha ! bhavantareapi.

अच्छा है हरिहर को देखना, भरे पड़े रागादि दोष,
वीतरागी जब देख तूझे, आ जाता है अतिशय सन्तोष ।
पर जब देख लिया तुझको, तो अन्य कोई जंचता ही नहीं ,
मेरे मन का हरण प्रभो, फिर कोई कर सकता ही नहीं ॥

श्लोक – 22 (व्यंतर आदि भय नाशक स्तोत्र)

स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्,
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता।
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्र रश्मिं,
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशु – जालम्।।

Strinam shatani shatasho janayanti putran
Nanya sutam tvadupamam janani prasuta.
Sarva disho dadhati bhani sahastra rashmim
Prachyeva digjanayati sphuradamshu jalam.

यद्यपि अन्य दिशाऐं हैं, पर पूर्व दिशा अति प्रियकारो,
वो ही देती जन्म सुर्य को, प्रकाश पाते संसारो ।
इस तरह हे नाथ जगत में, जननी पद सबने पाया,
पर तेरी माता ने ही जग में, तुझसा पुत्र रत्न जाया ||

श्लोक – 23 (प्रेत बाधा निवारक स्तोत्र)

त्वामामनन्ति मुनय: परमं पुमांस –
मादित्य – वर्णममलं तमस: परस्तात्।
त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयन्ति मृत्युं,
नान्य: शिव: शिवपदस्य मुनीन्द्र ! पन्था:।।

Tvamamanati munayah paramam pumamsha
Maditya varanamamalam tamasah purastat.
Tvameva samyagupalabhya jayanti mrityum
Nanyah shivah shivapadasya munindra ! panthah.

राग-द्वैष से रहित हो निर्मल, मोह नाश को सूर्य स्वरुप,
तेरी प्राप्ति पर मृत्यु डसे नहीं, इस कारण मृत्यु जय रुप ।
निरुपद्रव मोक्ष मार्ग नहीं, अन्य कोई भगवन,
परम पुरुष अज्ञान विनाशक, तुझे मानते हैं सन्त जन ॥

श्लोक – 24 (सिर पीड़ा हारक स्तोत्र)

त्वाम – व्ययं विभुम – चिन्त्य – मसंख्यमाद्यं,
ब्रह्माण – मीश्वरमनन्तमनङ्ग – केतुम्।
योगीश्वरं विदित – योगमनेकमेकं,
ज्ञान – स्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्त:।।

Tvama vayam vibhuma chintya masankhyamadyam
Brahmana mishvaramanantamananga ketum.
Yogishvaram vidita yogamanekamekam
Gyna svarupamamalam pravadanti santah.

हे अव्यय अचिन्त्य विभो, असंख्य गुणों के धारक हो,
आदि घर्म के कर्ता हो, ब्रह्म ईश, विकार संहारक हो ।
अनन्त ज्ञान के धारी हो, योगेश्वर तुम में पूर्ण विवेक.
अनेक में हो एक आप, हे नाथ एक में सदा अनेक ॥

श्लोक – 25 (अग्नि ताप शामक स्तोत्र)

बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित – बुद्धि – बोधात्,
त्वं शंकरोऽसि भुवन – त्रय – शंकरत्वात् ।
धाताऽसि धीर ! शिव – मार्ग – विधेर्विधानात्,
व्यक्तं त्वमेव भगवन् !  पुरुषोत्तमोऽसि।।

Buddhastvameva vibudharchita buddhi bodthat
Tvam Shankaroasi bhuvana traya shankaratvat.
Dhatasi dhira! shiva marga vidhervidhanat
Vyaktam tvameva Bhagavan! purushottamoasi.

देवों में सम्मानित केवल, ज्ञान तेरा तुम ही बुद्ध हो,
त्रिभुवन के कल्याण मार्ग के, रचना शंकर तुम खुद हो ।
कल्याण मार्ग की विधि के दाता, ब्रह्मा भी तो आप ही हो,
पुरुषों में उत्तम होने से, पुरुषोत्तम तो आप ही हो ॥

श्लोक – 26 (प्रसव वेदना विनाशक स्तोत्र)

तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ!
तुभ्यं नम: क्षिति – तलामल भूषणाय!।
तुभ्यं नमस्त्रिजगत: परमेश्वराय,
तुभ्यं नमो जिन! भवोदधिशोषणाय।।

Tubhyam namastribhuvanartiharaya natha !
Tubhyam namah kshiti talamala bhushanaya.
Tubhyam namastrijagatah parameshvaraya
Tubhyam namo jina! bhavodadhishoshanaya.

त्रिभुवन पीड़ा हरण हार हो, तुमको मेरा नमस्कार
जग के उज्जवल अलंकार प्रणाम तुम्हें मेरा हर बार ।
तीन जगत के नाथ आपके, चरणों मे जाऊ बलिहार,
भव सागर के शोषण कर्ता, तुमको वन्दन बारम्बार ॥

श्लोक – 27 (मंत्राराधक का उपसर्ग निवारक स्तोत्र)

को विस्मयोऽत्र ? यदि नाम गुणैरशेषैस्-
त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश !।
दोषैरुपात्त – विविधाश्रय – जात – गर्वै:,
स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि।।

Ko vismayoatra ? yadi nama gunairasheshaih
Tvam sanshrito niravakashataya munisha.
Doshairupatta vividhashraya jata garvaih
Svapnantareapi na kadachidapikshitosi.

जग में जितने गुण थे भगवन, सबमें तुमने किया निवास,
अवगुण रहते सदा घमण्ड में, आते नहीं तुम्हारे पास ।
क्योंकि जग के अन्य देवों ने, उनको अपना रक्खा है
पर दोषों से रहित आपने, गुण ही का रस चक्खा है ॥

श्लोक – 28 (इष्ट कार्य सिद्धि साधक स्तोत्र)

उच्चैरशोक- तरु – संश्रितमुन्मयूख -,
माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम्।
स्पष्टोल्लसत्किरणमस्त – तमोवितानं,
बिम्बं रवेरिव पयोधर – पार्श्र्व – वर्ति।।

Uchchairashokatarusamshrita munmayukha
Mabhati rupamamalam bhavato nitantam.
Spashtollasat kiranamasta tamo vitanam
Bimbam raveriva payodhara parshvavarti.

नभ में बादल के समीप जब, सूर्य प्रतिबिम्ब छाता है,
शोभा देता जो अति सुन्दर, सत्र के मन को भाता है ।
उसी तरह अशोक वृक्ष के नीचे, तेरी छवि प्यारी
निर्मल अंग शोभा पाता है, आसमान सा प्रियकारी ।।

श्लोक – 29 (बिच्छु विष निवारक स्तोत्र)

सिंहासने मणि -मयूख – शिखा – विचित्रे,
विभ्राजते तव वपु: कनकावदातम्।
बिम्बं वियद्विलसदंशु – लता – वितानं
तुङ्गोदयाद्रि – शिरसीव सहस्र – रश्मे:।।

Simhasane mani mayukha shikha vichitre
Vibhrajate tava vapuh kanakavadatam.
Bimbam viyadvilasadanshu lata vitanam
Tungodayadri shirasiva sahasra rashmeh.

प्रकाशमान मणियों से युक्त है, रत्न जड़ित तव सिंहासन,
उस पर कितना प्यारा लगता, शरीर आपका है भगवन ।
उदयांचल पर्वत के शिखर पर, जबकि सूरज आता है,
कितना सुंदर और मनोहर, अति शोभा को पाता है ॥

श्लोक – 30 (शत्रु, सिंह आदि भय निवारक स्तोत्र)

कुन्दावदात – चल – चामर – चारु – शोभं,
विभ्राजते तव वपु: कल – धौतकान्तम्।
उद्यच्छशांक – शुचि – निर्झर – वारि – धार-
मुच्चैस्तटं सुर – गिरेरिव शात – कौम्भम्।।

Kundavadata chala chamara charu shobhama
Vibharajate tava vapuh kala dhautakantam.
Udyachchashanaka shuchi nirjhara vari dhara
Muchchaistantam sura gireriva shata kaumbham.

समवसरण में उच्च सिंहासन पर, जब तुम बैठे होते,
श्वेत कुन्ज के पुष्प जसे ही, आस-पास चामर ढुलते ।
सुमेरू गिरि के दोनों तट पर, मानो दो झरने झरते,
चन्दा सम निर्मल जल बहता, वो ऐसे चामर लगते हैं ।।

श्लोक – 31 (यश, कीर्ती और प्रतिष्ठा स्तोत्र)

छत्र – त्रयं तव  विभाति शशाङ्क – कान्त,
मुच्चैः स्थितं स्थगित भानु – कर – प्रतापम् ।
मुक्ताफल – प्रकरजालविवृद्धशोभं,
प्रख्यापयत्त्रि – जगतः परमेश्वरत्वम्।।

Chhatra trayam tava vibhati shashanka kanta
Muchchaih sthitam sthagita bhanu kara pratapam.
Muktaphala prakarajalavivraddhashobham
Prakhyapayattri jagatah parameshvaratvam.

तेरे शीश पर तीन छत्र, शोभा पाते हैं प्रियकारी,
चन्दा जैसी कान्ति जिनकी, तेज सूर्य से भी भारी ।
मणियों की पड़ रही जाल, वो ऐसा तेज दिखाते हैं,
उर्ध्व मृत्यु पाताल लोक पति, मानो तुम्हें बताते हैं ॥

श्लोक – 32 (प्रकृति प्रकोप नाशक स्तोत्र)

उन्निद्र – हेम – नव – पंकज – पुञ्ज – कान्ती,
पर्युल्लसन्नख – मयूख शिखाभिरामौ।
पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र ! धत्त:,
पद्मानि तत्र विबुधा: परिकल्पयन्ति।।

Unnidra hema nava pankaja punja kanti
Paryullasannakha mayukha shikhabhiramau.
Padau padani tava yatra Jinendra dhattah
Padmani tatra vibudhah parikalpayanti.

खिला हुआ सूवर्ण वर्णी कमल, समूह लगता प्यारा,
नख पंक्ति युत्त चरण कमल, तब है उसको जीतन हारा ।
ऐसे उत्तम चरण कमल हे नाथ, आप जहां रहते हैं,
वहा देवगण पदम कमल की, आकर रचना करते हैं ।।

श्लोक – 33 (दुष्ट वचन अवरोधक स्तोत्र)

इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र !,
धर्मोपदेशन – विधौ न तथा परस्य।
यादृक्प्रभा – दिन – कृत: प्रहतान्धकारा,
तादृक्कुतो ग्रह – गणस्य विकाशिनोऽपि।।

Ittham yatha tava vibhutirabhujjinendra !
Dharmopdeshana vidhau na tatha parasya.
Yadrik prabha dinakritah prahatandhakara
Tadrik kuto grahaganasya vikashinoapi.

अष्ट महा प्रतिहार्यादि की, इन विभूतियों के स्वामी,
अन्य हरिहरादि देवों का, नहीं मिले रहती खामी ।
जिस प्रकार अन्धकार हरण को, होता दिव्य सूर्य ज्योति,
वैसी ग्रह नक्षात्रादि में प्रभा, कभी नहीं हो सकती ॥

श्लोक – 34 (मदोन्मत्त गज वशीकरण कारक स्तोत्र)

श्च्योतन्मदाविल – विलोल – कपोल – मूल,
मत्त – भ्रमद् – भ्रमर – नाद – विवृद्ध – कोपम्।
ऐरावताभमिभमुद्धत – मापतन्तं,
दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम्।।

Schyotanmadavila vilola kapola mula
Matta bhramad bhramara nada vivriddha kopam.
Airavatabhamibhamuddhata mapatantam
Dristva bhayam bhavati no bhavadashritanam.

मद मैं झरता कोष जिसका, मलिन और चंचल होता,
उन्मत भवरों की गुन्जार से, छाया क्रोध भान खोता ।
ऐसा रोष भरा हाथी भी, गर जो सामने आवेगा,
तेरा आश्रय लेने वाला, भक्त नहीं घबरायेगा ।।

श्लोक – 35 (सन्मार्ग दर्शक स्तोत्र)

भिन्नेभ – कुम्भ – गलदुज्ज्वल – शोणिताक्त,
मुक्ता – फल – प्रकर – भूषित – भूमि – भाग:।
बद्ध – क्रम: क्रम – गतं हरिणाधिपोऽपि,
नाक्रामति क्रम – युगाचल – संश्रितं ते।।

Bhinnebha – kumbha – galadujjavala – shonitakta,
Mukta phala prakara – bhushita bhumi bhagah.
Baddha kramah krama gatam harinadhipoapi,
Nakramati krama yugachala sanshritam te.

मदोन्मत कुन्जर के मस्तक का, जो विदारण कर लेता,
रक्त मिश्रित मोतियों से, पृथ्वी को चमका देता ।
तेरे युगल चरण पर्वत का, जो भी आश्रय मन धरता,
क्या ताकत वो पराक्रमी सिंह, उसका सामना कर सकता ॥

श्लोक – 36 (अग्नि प्रकोप शामक स्तोत्र)

कल्पान्त – काल – पवनोद्धत – वह्नि – कल्पं,
दावानलं ज्वलितमुज्ज्वल – मुत्स्फुलिङ्गम्।
विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुखमापतन्तं,
त्वन्नाम – कीर्तन – जलं शमयत्य – शेषम्।।

Kalpanta kala pavanoddhata vahni kalpam,
Davanalam jvalitamujjavala mutsphulingam.
Vishvam jighatsumiva sammukhamapatantam,
Tvannama kirtana jalam shamayatya shesham.

प्रचण्ड पवन तिनके उछले, और भयप्रद ज्वाला भभक रही,
मानो जग को हड़प जायेगी, ऐसी अग्नि धधक रही ।
जैसे चन्दन का एक बिन्दू, मेटे मनो तेल का कान्त,
तेरा पवित्र नाम लेने से, होती वह अग्नि भी शान्त ॥

श्लोक – 37 (विष प्रभाव प्रतिरोधक स्तोत्र)

रक्तेक्षणं स – मद – कोकिल  कण्ठ – नीलम्,
क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतन्तम्।
आक्रामति क्रम – युगेन निरस्त – शंक-
स्त्वन्नाम – नाग – दमनी हृदि यस्य पुंस:।।

Raktekshanam sa mada kokila kanthanilam,
Krodhoddhatam phaninamutphanamapatantam.
Akramati krama yugena nirasta shanka
Stvannama naga damani hridi yasya punsah.

लाल नेत्रों में क्रोध भरा, और ऊंचा फन फुंकार करे,
मदोन्मत अति काला सर्प, आ पैरों के नीचे विचरे ।
तेरे नाम को नाग दमनी, जड़ी यह जिसके हृदय है,
सर्प न बाधा पहुंचा सकता, चाहे कितना ही निर्दय मैं ।।

श्लोक – 38 (युद्ध अवरोधक स्तोत्र)

वल्गतुरङ्ग – गज – गर्जित – भीम – नाद-
माजौ बलं बलवतामपि  भूपतीनाम्।
उद्य – द्दिवाकर – मयूख – शिखापविद्धं
त्वत्कीर्तनात्तम इवाशु भिदामुपैति।।

Valgatturanga gaja garjita bhima nada
Majau balam balavatamapi bhupatinam.
Udyad divakara mayukha – shikhapaviddham,
Tvatkirtanattama ivashu bhidamupaiti.

घोड़े करें हुंकार गर्जना, हाथी भी करते भारी
रण में हो बलवान भूपति, ले अपनी सेना भारी ।
किन्तु सूर्य के उदय होते ही, अन्धकार नष्ट हो जाता,
इसी तरह तब भक्ति के बल, रण में जीत भक्त पाता ॥

श्लोक – 39 (अस्त्र शस्त्र प्रभाव कारक स्तोत्र)

कुन्ताग्रभिन्नगज – शोणित – वारिवाह,
वेगावतार – तरणातुर – योध – भीमे।
युद्धे जयं विजित – दुर्जय – जेय – पक्षास्-
त्वत्पाद – पंकज – वनाश्रयिणो लभन्ते।।

Kuntagrabhinnagaja shonita varivaha
Vegavatara – taranatura yodha bhime.
Yuddhe jayam vijita durjaya jeya pakshas –
Tvatpada pankaja vanashrayino labhante.

बरस रहे हों बर्छी, भाले, तलवारों की लगकर मार,
बहे वेग में हाथियों के, रक्त रूपी जहां जल की धार ।
यद्यपि पार करने का इच्छुक, पर योद्धा बल हुआ समाप्त,
तेरा भक्त तो कर ही लेता, शत्रु पक्ष से जय को प्राप्त ॥

श्लोक – 40 (प्रलय तूफान भय निवारक स्तोत्र)

अम्भो – निधौ क्षुभित – भीषण – नक्र – चक्र –
पाठीन – पीठ – भयदोल्वण – वाड – वाग्नौ।
रंगत्तरंग – शिखर – स्थित – यान – पात्रास्,
त्रासं विहाय भवत: स्मरणाद् व्रजन्ति।।

Ambhau nidhau kshubhita bhishana nakra chakra
Pathina pitha bhayadolbana vada vagnau.
Rangattaranga shikhara sthita yana patras
Trasam vihaya bhavatah smaranad vrajanti.

भयंकर है मगरमच्छ, बड़वाग्नि भी जलती न्यारी,
समुद्र तरंगों में जहाज, डोलायमान हो रहा भारी ।
ऐसा जहाज भी कुशल पूर्वक, सागर तट को पा लेता,
तब सुमिरण भक्तों की यात्रा, सुख से पार करा देता ।।

श्लोक – 41 (असाध्य रोग निवारक स्तोत्र)

उद्भूत – भीषण – जलोदर – भार – भुग्ना:,
शोच्यां दशा – मुपगताश्च्युत – जीविताशा:।
त्वत्पाद – पङ्कज – रजोऽमृत – दिग्ध – देहा,
मर्त्या भवन्ति मकर – ध्वज – तुल्य – रूपा:।।

Udbhuta bhishana jalodara bhara bhugnah
Shochyam dasha mupagatashchyuta jivitashah.
Tvatpada pankaja-rajoamrita digdha deha
Martya bhavanti makara dhvaja tulya rupah.

जलोदर आदि रोगों से झुक, जो कुबड़ा हो जाता,
जीवन आशा छोड़ चुका जो, दशा शोचनीय को पाता।
वे नर तेरे चरण कमल को, रज हृदय से अपनाते,
रोग शोक हो दूर शीघ्र ही, कामदेव से बन जाते ॥

श्लोक – 42 (काराग्रह बंधन मोचक स्तोत्र)

आपाद – कण्ठमुरु – शृंखल – वेष्टिताङ्गा,
गाढं – बृहन्निगड – कोटि – निघृष्ट – जंघा:।
त्वन्नाम – मन्त्रमनिशं मनुजा: स्मरन्त:,
सद्य: स्वयं विगत – बन्ध – भया भवन्ति।।

Apada – kanthamuru shrrinkhala – veshtitanga
Gadham brihannigada koti nighrishta janghah.
Tvannama mantramanisham manujah smarantah
Sadyah svayam vigata-bandha bhaya bhavanti.

पांवों से ले गले तक जो, अंग सांकलों से जकड़ा,
बेड़ियों की बड़ी-बड़ी नौकों ने, जंघा को रगड़ा ।
वे नर भी जब तेरे नाम का, ध्यान हृदय मे लाते हैं,
बन्धन जाते टूट स्वयं ही, शीघ्र मुक्त हो जाते हैं ।।

श्लोक – 43 (अस्त्र शस्त्र निष्क्रिय कारक स्तोत्र)

मत्त – द्विपेन्द्र- मृगराज – दवानलाहि-
संग्रामवारिधि – महोदर – बन्धनोत्थम्।
तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव,
यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते।।

Matta dvipendra mrigaraja davanalahi
Sangramavaridhi mahodara bandhanottham.
Tasyashu nashamupayati bhayam bhiyeva
Yastavakam stavamimam matimanadhite.

हस्ति सिंह अरु अग्नि सर्प हो, युक्त शत्रु सागर या रोग,
बन्धन हो या अन्य कोई भी, जीवन में विपदा संयोग ।
हे नाथ अपके इस स्त्रोत को, भक्ति युक्त जो भी गाते,
उनके यह सारे भय क्षण में, स्वयं ही डरकर भग जाते ॥

श्लोक – 44 (सर्वाधीन कारक स्तोत्र)

स्तोत्रस्रजं तव जिनेन्द्र! गुणैर्निबद्धां,
भक्त्या मया रुचिर – वर्ण – विचित्र – पुष्पाम्!।
धत्ते जनो य इह कण्ठ – गतामजस्रं,
तं “मानतुङ्ग” मवशा समुपैति लक्ष्मी:।।

Stotrastrajam tava jinendra ! gunairnibaddham
Bhaktya maya ruchira varna vichitra pushpam!.
Dhatte jano ya iha kantha gatamajasram
Tam Manatunga mavasha samupaiti Lakshmih.

पुष्प हार ज्यों शोभा देता, वैसे यह गुण का माल,
बुद्धिमान कर धारण इसको, हो जावेगा परम निहाल ।
कर कण्ठस्थ गाता जो रचना, मांतुंग के मन भाती,
लक्ष्मी को लेता ‘जीत, वह स्वयं विवश होकर आती ॥

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