शब्द से अनेक गुणी शक्ति आकृति में है, चित्र में है और उसमें भी श्री वीतराग अरिहंत परमात्मा की सौम्य रस मग्न प्रतिमा का स्थान अंग्रण्य है। आत्मा एवं परमात्मा के स्वरुप का ज्ञान प्राप्त करने के लिए उस प्रकार के वीतराग एव प्रशान्त स्वरुप को दर्शाने वाली जिन प्रतिमाओं के दर्शन, वंदन, पूजन, ध्यान आदि साधक अवस्था में नितांत आवश्यक है। प्रभु आकृति वस्तुतः मानव के दिव्य भाव चिन्तन का ही मूर्त स्वरुप है। आन्तरिक भावों की शुद्धि तथा वीतरागता को प्रतिबिम्बित करने वाली शक्ति आकृति में है। आत्मा में समाहित वीतरागता, प्रशम, उदासीनता आदि दिव्य गुणों, भावों की प्राप्ति और दीप्ति के लिए है।
मनुष्य जब भी मूर्ति या चित्र के समाने जाकर पूजा, वंदना, स्तवना करता है तो वह पूजा, वंदना, स्तवना उस पत्थर या कागज की नहीं है की जिस पर वह मूर्ति या चित्र बना है। मनुष्य वस्तुतः उन आदर्शों गुणों का ही वंदना पूजा करता है जिसको वह मूर्ति या चित्र में स्थापित करता है। यह पूजा आदर्श व गुण पूजा ही है। नेत्रों के सामने जब ऐनक होती है तो क्या नेत्र उस ऐनक को देखता है ? नही, ऐनक तो माध्यम है, वस्तु को अति स्पष्टता से देखने के लिए है। ऐसे ही अव्यक्त गुण एवं आदर्श को भी समझने के लिए मूर्ति व चित्र आवश्यक है, उपकारी है।
प्रभु प्रतिमा अलक्ष्य आत्मस्वरुप को चाक्षुष प्रत्यक्ष के रुप में प्रगट करने का एक माध्यम है। जैसे कि पितृ भक्त पुत्र-परिवार उनकी तस्वीर के दर्शन के द्वारा उनके उच्च गुणों को स्मृति पटल में लाकर गुण प्राप्ति की प्रेरणा प्राप्त करते है।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के काल में शहीद हुए देश भक्तो की मूर्ति, तस्वीर आदि को देखकर उनको स्मरण करते है। उसी तरह उन्हे देखकर देश भक्ति, स्वतंत्रता एव शूरवीरता की प्रेरणा प्राप्त होती है। उसी तरह वीतराग परमात्मा की सौम्य, प्रशांत मुद्रा के दर्शन, पूजन, ध्यान से उनके जैसे ही उच्च गुण जो हमारे में अन्तर्निहित हैं उन गुणों को प्रकट करने की दिव्य प्रेरणा एवं शक्ती प्राप्त की जाती है। कई प्रकार की विकृतियों एवं मलिनताओं से भरे हुए हमारे चित्त को निर्मल, निर्विकार, बनाने का उत्तम मार्ग वीतराग भक्ति है, अरिहंत उपासना है।
सौजन्य – भक्ति है मार्ग मुक्ति का – पू. आचार्य कलापूर्णसूरि जी महाराज
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