भक्तामर स्तोत्र का जैन धर्म में बडा ही महत्व है। भक्तामर स्तोत्र की रचना वाराणसी में ‘धनदेव’ श्रेष्ठि के यहाँ जन्मे आचार्य श्रीमानतुंग सूरि जी द्वारा किया गया। भक्तामर स्तोत्र जैन परंपराओं में सबसे लोकप्रिय संस्कृत प्रार्थना है। भक्तामर स्तोत्र के श्लोकों का पाठन वसंततिलका छन्द में किया गया है। छन्द शब्द मूल रूप से छन्दस् अथवा छन्दः है। इसके शाब्दिक अर्थ दो है – ‘आच्छादित कर देने वाला’ और ‘आनन्द देने वाला’ । लय और ताल से युक्त ध्वनि मनुष्य के हृदय पर अपना प्रभाव डाल कर उनको एक विषय में स्थिर कर देती है जहां मनुष्य उससे प्राप्त आनन्द में डूब जाता है। यही कारण है कि लय और ताल वाली रचना छन्द कहलाती है। इसका दूसरा नाम वृत्त है। वृत्त का अर्थ है प्रभावशाली रचना। वृत्त भी छन्द को इसलिए कहते हैं, क्यों कि अर्थ जाने बिना भी सुनने वाला इसकी स्वर-लहरी से प्रभावित हो जाता है। यही कारण है कि सभी वेद छन्द-रचना में ही संसार में प्रकट हुए थे। यह छन्द चौदह वर्णों वाला है। ‘तगण’, ‘भगण’, ‘जगण’, ‘जगण’ और दो गुरुओं के क्रम से इसका प्रत्येक चरण बनता है। 4 पंक्तियों के 56 वर्णों को मिलाकर हर छन्द बनता है। आचार्य श्रीमानतुंग सूरि से नाराज होकर राजा भोज ने उन्हें कारागार में बंद करवा दिया तथा जंजीरो की बेड़ियो से शरीर को बांध दिया । इस कारागर में 48 दरवाजे थे जिन पर 48 मजबूत ताले लगवा दिये गये। तब आचार्य मानतुंग स्वामी ने आदीनाथ भगवान का स्मरण करते हुए भक्तामर स्तोत्र की रचना की तथा हर श्लोक की रचना पर ताला स्वयं टूटता चला गया तथा उनके शरीर पर बांधी गयी सभी जंजीरो की बेड़िया टूट कर गिर गयी। लेकिन श्वेताम्बर जैन समुदाय में 44 स्तोत्र का उल्लेख किया गया है। (इस विषय पर अनुसंधान जारी है) आचार्य श्रीमानतुंग सूरि 7 वी शताब्दी में राजा भोज के काल में प्रसिद्ध हुए । मंत्र शक्ति में आस्था रखने वालो के लिए यह रचना दिव्य स्तोत्र है । इसका नियमित जाप एक माला के रूप में करने से मन में शांति का अनुभव होता है व सुख समृद्धि एवं वैभव की प्राप्ति होती है। जैन धर्म में ही नही अपितु अन्य धर्मों मे भी यह माना जाता है कि भक्तामर स्तोत्र में भक्ति भाव की इतनी सर्वोच्चता है कि यदि आपने सच्चे मन से इसका पाठ किया तो आपको साक्षात ईश्वर की अनुभति होती है। भक्तामर स्तोत्र का जाप प्रतिदिन प्रातःकाल (सूर्योदय) के समय पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर मुख करके करना चाहिए। एक ही जगह पर जाप किया जाय तो उस जगह पर बैठने से अद्बभुत उर्जा मिलती है। हर स्तोत्र की रचना अपने आप में अद्भुत है, जिनका जाप विभिन्न परिस्थितियों में किया जा सकता है। आप अगर कार्य करते समय भी भक्तामर स्तोत्र को सुनते है तो, वह लाभकारी होता है। विशेष जानकारी हेतु आप मुझसे सम्पर्क कर सकते हैं। प्रदीप कोचर – 9433056054 / 8820424365 |
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श्लोक – 1 (सर्वोपद्रव विनाशक स्तोत्र) भक्तामर – प्रणत – मौलि – मणि – प्रभाणा – Bhaktamar pranat mauli mani prabhana भक्ति युक्त निज शीश झुका, जब देव वन्दना करते हैं, आवश्यकताः अगर आपका जीवन संकट की घड़ियों से गुजर रहा है तो उनका क्षय होगा। शक्ति तथा ज्ञान का उपार्जन होगा जिसके कारण आपको नकारात्मकता से छुटकारा मिलेगा। |
श्लोक – 2 (सर्वाविघ्न विनाशक स्तोत्र) य: संस्तुत: सकल – वाङ्गमय – तत्त्व – बोधा – Yah sanstutah sakala vaangmaya tatva bodhaa तत्व ज्ञान से पूर्ण स्वर्गपति, इन्द्रों ने महिमा गाई, |
श्लोक – 3 (शत्रुदृष्टि बन्धक स्तोत्र) बुद्ध्या विनापि विबुधार्चित – पाद – पीठ! Buddhya vinaapi vibudharchita pada pitha देख चन्द्र की छाया जल में, बालक का मन जाता है, |
श्लोक – 4 (जलजन्तु अभय प्रदायक स्तोत्र) वक्तुं गुणान् गुणसमुद्र ! शशाङ्क-कान्तान्, Vaktum gunan gunasamudra shashankakantan प्रलय काल के प्रबल वेग में, सागर जब लहरें देता, |
श्लोक – 5 (लोचनकष्ट मोचक स्तोत्र) सोऽहं तथापि तव भक्ति – वशान्मुनीश! Soaham tathapi tava bhakti vashanmunisha यद्यपि मुझमें शक्ति नहीं है, तेरी महिमा गाने की, |
श्लोक – 6 (वियुक्तप्सक्ति संयोजक स्तोत्र) अल्पश्रुतं श्रुतवतां परिहास – धाम, Alpashrutam shrutavatam parihasa dham कोयल क्यों ना हरदम बोले, बसन्त ही जब आती हैं, |
श्लोक – 7 (भुजंगविष उपशमक स्तोत्र) त्वत्संस्तवेन भव – सन्तति – सन्निबद्धं, Tvatsanstavena bhava santati sannibaddham सम्पूर्ण विश्व में घोर तिमिर, छाया रहता है अति भारी. |
श्लोक – 8 (सर्वारिष्ट संहारक स्तोत्र) मत्वेति नाथ ! तव संस्तवनं मयेद – Matveti nath ! tava sanstavanam mayeda साधारण जल का बिन्दु, कमलिनी के पत्तों पर होता, |
श्लोक – 9 (दस्युतस्कर चौरभय विवर्जक स्तोत्र) आस्तां तव स्तवनमस्त – समस्त – दोषं, Astam tava stavanamasta samasta dosham सूर्य उदय में प्रथम प्रभा को, देख कमल खिल उठता है, |
श्लोक – 10 (उन्मत श्वान विष विनाशक स्तोत्र) नात्यद्भुतं भुवन – भूषण ! भूतनाथ ! Natyadbhutam bhuvana bhushana ! bhutanatha ! उदार हृदय स्वामी का सेवक, समय पड़ें पाकर धनवान, |
श्लोक – 11 (इष्ट व्यक्ति आमन्त्रक स्तोत्र) दृष्ट्वा भवन्त – मनिमेष – विलोकनीयं, Drishtava bhavanta manimesha vilokaniyam एक बार जो क्षीर सागर का, मीठा पानी पी लेता, |
श्लोक – 12 (मदोन्मत हस्तिमद नाशक स्तोत्र) यै: शान्त – राग – रुचिभि: परमाणुभिस्त्वं, Yaih shanta raga ruchibhih paramanubhistavam जिन पुद्गल परमाणु से तब, शरीर बना है गुण धामी, |
श्लोक – 13 (विवध भय निवारक स्तोत्र) वक्त्रं क्वते सुर – नरोरग – नेत्र – हारि, Vaktram kvate sura naroraga netra hari निष्कलंक और द्रव्य छवि है, तेरे मुख सुख कन्दा की, |
श्लोक – 14 (वात व्याधि विघातक स्तोत्र) सम्पूर्ण – मण्डल – शशाङ्क – कला – कलाप – Sampurna mandala shashanka kala kalapa चन्द्र किरण सम निर्मल भगवन गुण समूह तेरा भारी, |
श्लोक – 15 (राज वैभव प्रदायक स्तोत्र) चित्रं किमत्र यदि ते त्रिदशाङ्ग – नाभिर्- Chitram kimatra yadi te tridashanga nabhir प्रलय काल की हवा से भगवान, सारे पर्वत हिल जाते, |
श्लोक – 16 (प्रतिद्वंदी अवरोधक स्तोत्र) निर्धूम – वर्तिरपवर्जित – तैल – पूर:, Nirdhuma vartirapavarjita taila purah संसारी दीपक में भगवान, तो धुआं बत्ती होती, |
श्लोक – 17 (उदा पीड़ा नाशक स्तोत्र) नास्तं कदाचिदुपयासि न राहुगम्य:, Nastam kadachidupayasi na rahugamyah सूर्य अस्त होता संघ्या को, तू तो सदा प्रकाशी है, |
श्लोक – 18 (शत्रु सैन्य स्तंभक स्तोत्र) नित्योदयं दलितमोह – महान्धकारं, Nityodayam dalitamoha mahandhakaram कैसे चन्द्र की दू उपमा, वह तो रात्रि में ही रहता, |
श्लोक – 19 (तंत्र प्रभाव उच्चाटक स्तोत्र) किं शर्वरीषु शशिनाऽह्नि विवस्वता वा, Kim sharvarishu shashinanhi vivasvata va पकी हुई अन्न राशि पर, गर जो मेहा आकर बरसे, |
श्लोक – 20 (उन्मत श्वान विष विनाशक स्तोत्र) ज्ञानं यथा त्वयि विभाति कृतावकाशं, Gyanam yatha tvayi vibhati kritavakasham जो प्रकाश शोभा पाता है, प्रभु मणि को पाकर के, |
श्लोक – 21 (सर्वाधीन कारक स्तोत्र) मन्ये वरं हरि- हरादय एव दृष्टा, Manye varam Hari Haradaya eva drishta अच्छा है हरिहर को देखना, भरे पड़े रागादि दोष, |
श्लोक – 22 (व्यंतर आदि भय नाशक स्तोत्र) स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्, Strinam shatani shatasho janayanti putran यद्यपि अन्य दिशाऐं हैं, पर पूर्व दिशा अति प्रियकारो, |
श्लोक – 23 (प्रेत बाधा निवारक स्तोत्र) त्वामामनन्ति मुनय: परमं पुमांस – Tvamamanati munayah paramam pumamsha राग-द्वैष से रहित हो निर्मल, मोह नाश को सूर्य स्वरुप, |
श्लोक – 24 (सिर पीड़ा हारक स्तोत्र) त्वाम – व्ययं विभुम – चिन्त्य – मसंख्यमाद्यं, Tvama vayam vibhuma chintya masankhyamadyam हे अव्यय अचिन्त्य विभो, असंख्य गुणों के धारक हो, |
श्लोक – 25 (अग्नि ताप शामक स्तोत्र) बुद्धस्त्वमेव विबुधार्चित – बुद्धि – बोधात्, Buddhastvameva vibudharchita buddhi bodthat देवों में सम्मानित केवल, ज्ञान तेरा तुम ही बुद्ध हो, |
श्लोक – 26 (प्रसव वेदना विनाशक स्तोत्र) तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ! Tubhyam namastribhuvanartiharaya natha ! त्रिभुवन पीड़ा हरण हार हो, तुमको मेरा नमस्कार |
श्लोक – 27 (मंत्राराधक का उपसर्ग निवारक स्तोत्र) को विस्मयोऽत्र ? यदि नाम गुणैरशेषैस्- Ko vismayoatra ? yadi nama gunairasheshaih जग में जितने गुण थे भगवन, सबमें तुमने किया निवास, |
श्लोक – 28 (इष्ट कार्य सिद्धि साधक स्तोत्र) उच्चैरशोक- तरु – संश्रितमुन्मयूख -, Uchchairashokatarusamshrita munmayukha नभ में बादल के समीप जब, सूर्य प्रतिबिम्ब छाता है, |
श्लोक – 29 (बिच्छु विष निवारक स्तोत्र) सिंहासने मणि -मयूख – शिखा – विचित्रे, Simhasane mani mayukha shikha vichitre प्रकाशमान मणियों से युक्त है, रत्न जड़ित तव सिंहासन, |
श्लोक – 30 (शत्रु, सिंह आदि भय निवारक स्तोत्र) कुन्दावदात – चल – चामर – चारु – शोभं, Kundavadata chala chamara charu shobhama समवसरण में उच्च सिंहासन पर, जब तुम बैठे होते, |
श्लोक – 31 (यश, कीर्ती और प्रतिष्ठा स्तोत्र) छत्र – त्रयं तव विभाति शशाङ्क – कान्त, Chhatra trayam tava vibhati shashanka kanta तेरे शीश पर तीन छत्र, शोभा पाते हैं प्रियकारी, |
श्लोक – 32 (प्रकृति प्रकोप नाशक स्तोत्र) उन्निद्र – हेम – नव – पंकज – पुञ्ज – कान्ती, Unnidra hema nava pankaja punja kanti खिला हुआ सूवर्ण वर्णी कमल, समूह लगता प्यारा, |
श्लोक – 33 (दुष्ट वचन अवरोधक स्तोत्र) इत्थं यथा तव विभूतिरभूज्जिनेन्द्र !, Ittham yatha tava vibhutirabhujjinendra ! अष्ट महा प्रतिहार्यादि की, इन विभूतियों के स्वामी, |
श्लोक – 34 (मदोन्मत्त गज वशीकरण कारक स्तोत्र) श्च्योतन्मदाविल – विलोल – कपोल – मूल, Schyotanmadavila vilola kapola mula मद मैं झरता कोष जिसका, मलिन और चंचल होता, |
श्लोक – 35 (सन्मार्ग दर्शक स्तोत्र) भिन्नेभ – कुम्भ – गलदुज्ज्वल – शोणिताक्त, Bhinnebha – kumbha – galadujjavala – shonitakta, मदोन्मत कुन्जर के मस्तक का, जो विदारण कर लेता, |
श्लोक – 36 (अग्नि प्रकोप शामक स्तोत्र) कल्पान्त – काल – पवनोद्धत – वह्नि – कल्पं, Kalpanta kala pavanoddhata vahni kalpam, प्रचण्ड पवन तिनके उछले, और भयप्रद ज्वाला भभक रही, |
श्लोक – 37 (विष प्रभाव प्रतिरोधक स्तोत्र) रक्तेक्षणं स – मद – कोकिल कण्ठ – नीलम्, Raktekshanam sa mada kokila kanthanilam, लाल नेत्रों में क्रोध भरा, और ऊंचा फन फुंकार करे, |
श्लोक – 38 (युद्ध अवरोधक स्तोत्र) वल्गतुरङ्ग – गज – गर्जित – भीम – नाद- Valgatturanga gaja garjita bhima nada घोड़े करें हुंकार गर्जना, हाथी भी करते भारी |
श्लोक – 39 (अस्त्र शस्त्र प्रभाव कारक स्तोत्र) कुन्ताग्रभिन्नगज – शोणित – वारिवाह, Kuntagrabhinnagaja shonita varivaha बरस रहे हों बर्छी, भाले, तलवारों की लगकर मार, |
श्लोक – 40 (प्रलय तूफान भय निवारक स्तोत्र) अम्भो – निधौ क्षुभित – भीषण – नक्र – चक्र – Ambhau nidhau kshubhita bhishana nakra chakra भयंकर है मगरमच्छ, बड़वाग्नि भी जलती न्यारी, |
श्लोक – 41 (असाध्य रोग निवारक स्तोत्र) उद्भूत – भीषण – जलोदर – भार – भुग्ना:, Udbhuta bhishana jalodara bhara bhugnah जलोदर आदि रोगों से झुक, जो कुबड़ा हो जाता, |
श्लोक – 42 (काराग्रह बंधन मोचक स्तोत्र) आपाद – कण्ठमुरु – शृंखल – वेष्टिताङ्गा, Apada – kanthamuru shrrinkhala – veshtitanga पांवों से ले गले तक जो, अंग सांकलों से जकड़ा, |
श्लोक – 43 (अस्त्र शस्त्र निष्क्रिय कारक स्तोत्र) मत्त – द्विपेन्द्र- मृगराज – दवानलाहि- Matta dvipendra mrigaraja davanalahi हस्ति सिंह अरु अग्नि सर्प हो, युक्त शत्रु सागर या रोग, |
श्लोक – 44 (सर्वाधीन कारक स्तोत्र) स्तोत्रस्रजं तव जिनेन्द्र! गुणैर्निबद्धां, Stotrastrajam tava jinendra ! gunairnibaddham पुष्प हार ज्यों शोभा देता, वैसे यह गुण का माल, |
कोरोना जैसे महामारी से लड़ने हेतु उवसग्गहरं का पाठ जरुर करे। सिर्फ 7-10 मिन्ट्स